Monday, March 26, 2018

शिशिर की रात
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सिकुड़ रहा ठंडक से
बृद्ध एक भिछुक था,
चाहता था पैसे कुछ
जीवन चलाने को।
पर हाय नही सुनता था,
कोई भी राहगीर ,
दर्द भरी , व्यथा भरी,
उसकी पुकारों को।
मानव की कौन कहे,
उसका प्रतिपालक भी,
करता था ऊपर से वर्षा तुषार की।
और उसकी जननी,
यह वन्दनीया अवनी भी,
खींचती थी चुपके से,
ऊष्मा शरीर की।
इसीलिए जोर जोर गीत वह गाता था,
जानने को,
जिन्दा है या है मरा हुआ।

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