Monday, March 26, 2018

बाप का बोझ
-----------------

हर साल यही होता।

हर अच्छी बारिश-
उसके हौसलों कच्चे बुलन्द कर जाती।
खेतों मे दिन पर दिन ,
पौधों की बढ़ती लम्बाई,
उसके अरमानो को और लम्बा कर जाती।
सरसों के पीले पीले फूलों मे,
वह अपनी बेटी के पीले होते हाथ देखता।
बच्चों के हँसते खिलखिलाते चेहरे देखता।
सहसा कुछ हो जाता।
बाढ आ जाती,
कभी सूखा पड़ जाता,
कभी पाला तो कभी ओला।
और-
पौधों का बढ़ना, फूलना, फलना
सब कुछ सहसा थम जाता।
थम जाती उसके चेहरे की चमक,
न थमता केवल समय,
जो उसकी बेटी को ,एक साल और बड़ा कर जाता।
कम हो जाती उसकी भूख,
बढ़ जाता झुंझलाना।
और मैंने देखा था-
ऐसा करते हर बार,
उनकी रीढ कुछ और झुक जाती।

चार लड़कियां तीन लड़के,
बड़ा परिवार।
मास्टरी का वेतन "ना" के बराबर।
खेती का बुरा हाल।
बड़े होते बच्चे, उनकी बढ़ती जरूरतें,
मैने देखा था अपने पिता को,
हवा मे उंगलियां नचाते हुए,
सम्भवतः कोई हिसाब लगाते हुए,
बार बार,
कितनी ही बार।
शायद समीकरण ठीक नही बैठ पाते।
कहीं वह अपने आप को लाचार पाते,
इसीलिए-
वह पहला हिसाब गलत कर ,दूसरा हिसाब फिर से लगाते।
वह यह क्रिया दोहराते तिहराते।
और-
मैने देखा था,
ऐसा करते हर बार,
उनके चेहरे की लकीरें कुछ और गहरा जाती।
उनके सिर के बाल कुछ और सफेद हो जाते।
उनकी रीढ कुछ और झुक जाती।

बच्चे हर साल एक बीता और बड़े हो जाते,बढ़ जाती उनके कपड़ों की नाप,
बड़ा हो जाता उनके स्कूल का बस्ता,
और-
बदल जाता उनके जूतों का नम्बर भी।
लेकिन बाप तो बाप होताहै।
वह बच्चों को खुशी के लिए,
कभी घोड़ा बन जाता है ,
तो कभी कन्धे पर बिठा उसे पालकी फिराता है।
और-
बच्चे की उन्मुक्त हंसी से ,
जैसे उसे स्वर्ग मिल जाता है।

सुनहरे सपने देखता वह,
"बड़े हो गए बच्चे,
उसके काम मे हाथ बताते बच्चे।
ऊंचे पदों पर आसीन बच्चे।
बड़े बड़े लोगों से हाथ मिलाते बच्चे।"
सहसा उसका खून गर्म हो जाता,
उसका सिर सीने की सीधी मे तन जाता।
उसके चेहरे की चमक वापस आ जाती,
और उसे लगता-
साइकिल की नंगी लोहे की पैडल पर जमे उसके पैर-
और अधिक मजबूत हो गये हैं।
गले मे फंसे बलगम को वह खांसकर साफ करता,
और-
और अधिक ताकत लगाकर,
साइकिल के पैडल को,
तेजी से चलाने लगता।

No comments: