Monday, March 26, 2018

कुरुक्षेत्र की तलाश मे
----------------------------

मै सुबह तड़के ही ,
मुर्गे की बाॅग के साथ उठ जाता हूं,
रथ मे बैठे अर्जुन किसन कन्हाई को निहारता,
जिन्हे मेरी माॅ बाजार से खरीद लायी थी।
घर से निकलते समय,
प्रायः ही मुझे मेरी कुतिया,
आलाप साधने के सुर मे,
रोती मिलती है।
और-
मैने सुना है- कि,
कुत्ते का इस तरह रोना,
अपशकुन होता है।
भय से अपने आप मे सिकुड़ता,
उन अस्वीकृत मान्यताओं के सामने,
जो सामने के मन्दिर में,
नानाकार रूपों मे उपस्थित हैं,
अपना सिर झुका ही देता हूं।
सुबह से शाम तक,
नौकरी की तलाश मे,
अखबारों के विज्ञापनों मे,
इन्टरव्यू की कतारों मे,
और-
कितनी ही समस्याओं मे,
गणनाओं मे,
अपने आप को धँसाये रहने के बाद,
शाम को जब वापस लौटता हूॅ,
तब भी,
मेरे अन्तः की कुतिया,
मुझे कूकती ही मिलती है।


खरीद फरोख्त मे बिकती नौकरियाँ,
रिश्तों और पहुंच से बटती नौकरियाँ,
जाति - धर्म के नाम, लुटती नौकरियाँ।
मुट्ठियाॅ बँध जाती हैं,
हाथ भिंच जाते हैं,
और- मैं,
भिंचे हाथों की तकिया लगाकर,
सोकर,
फिर उठ जाता हूॅ अगली सुबह,
किसी कुरुक्षेत्र की तलाश में।
रथ मे बैठे अर्जुन किसन कन्हाई को निहारता,
अपने अन्तर्द्वन्दों से जूझता,
जिजीविषा के महाभारत मे,
जीवन के कुरुक्षेत्रीय मैदान मे,
अकेला खड़ा ,
मुझे ऐसा लगता है,
कि मैं  हूॅ "पार्थ" ,
असमंजस मे फंसा ,
भविष्य की उहापोह मे धंसा,
भारत का युवा पार्थ।
अकेला,
नितांत अकेला।
न पांडु भाई हैं,
न पार्थसारथी,
जो मुझे आवाज दे-"उत्तिष्ठ भारतः",
शायद यह युद्ध मुझे अकेले ही लड़ना है,
लेकिन एक बात बता दूं,
जहां सिर्फ कौरव हों,
महाभारत सम्भव नही।
शिशिर की रात
--------------------

सिकुड़ रहा ठंडक से
बृद्ध एक भिछुक था,
चाहता था पैसे कुछ
जीवन चलाने को।
पर हाय नही सुनता था,
कोई भी राहगीर ,
दर्द भरी , व्यथा भरी,
उसकी पुकारों को।
मानव की कौन कहे,
उसका प्रतिपालक भी,
करता था ऊपर से वर्षा तुषार की।
और उसकी जननी,
यह वन्दनीया अवनी भी,
खींचती थी चुपके से,
ऊष्मा शरीर की।
इसीलिए जोर जोर गीत वह गाता था,
जानने को,
जिन्दा है या है मरा हुआ।

मछली मछली कित्ता पानी
------------------------------
-----

कित्ता पानी कित्ता पानी।
मछली मछली कित्ता पानी।
नदी किनारे आकर बैठी,
पूछे मछुआरों की रानी।
मछली मछली कित्ता पानी।
झुंडों मे आ कहतीं मछली,
इत्ता पानी इत्ता पानी।
प्रतिवर्ष इस तरह आती जाती,
गाती मछुआरों की रानी।
झुंडों मे आ मछली कहतीं,
इत्ता पानी इत्ता पानी।
हाय हुआ क्या इस बारी,
कि आई मछुआरों की रानी।
पूछे बैठे नदी किनारे,
मछली  मछली कित्ता पानी।
कोई उत्तर नहीं मिला तो,
उसको हुई बड़ी हैरानी।
बार बार आवाज लगाये,
मछली मछली कित्ता पानी।
बेसब्री मे आखिर उसने ,
फिर से यह आवाज लगाई।
थोड़ी हलचल हुई लहर मे,
एक बूढ़ी मछली बाहर आई।
बची-खुची उर्जा अर्जित कर,
थोड़ा हिली और वह डोली।
टूट रहे स्वर में,साहस कर,
बूढ़ी मछली फिर यूँ बोली।
यहां नही कोई मछली अब,
किसे पुकार रही हो रानी।
कैसे तुम्हे बताऊं अब मैं,
बित्ता पानी बित्ता पानी।
उद्योगों से निकला कचरा,
कारों का जहरीला तेल।
गन्दे नालों से हो आता,
दुनिया का सारा मल मैल।
इन सबसे जल हुआ प्रदूषित,
कब तक पी सकते थे हम।
इधर प्रदूषण उधर मछेरे,
कब तक जी सकते थे हम।
सूख गए सब ताल तलैये,
जिनमे मैं क्रीड़ा करती थी।
अपने पिय के संग संग मैं,
जहां प्रसव पीड़ा करती थी।
मछुआरों ने ऐसे ऐसे,
लघु छिद्रों के जाल बिछाये।
चार दिनों के छौने मेरे,
उन जालों के गाल समाये।
छोटे छोटे दिल के टुकड़े,
पकड़ ले गये वे हत्यारे।
बैठी बैठो नदी किनारे,
अब रानी तू किसे पुकारे।
हरे हो गये घाव याद के,
मछली सिसक सिसक रोती है,
अपनो के खोने की पीड़ा,
कितनी दर्द भरी होती है।
जाओ जाओ अपने घर तुम,
अब मत मुझे पुकारो रानी।
मेरी सांसे भी बुझने को, मत पूछो  कि कित्ता पानी।
कित्ता पानी कित्ता पानी।
चीरहरण अब भी जारी है
------------------------------
----

द्यूत जीतकर जो भी आया,
उसने इसे पदस्थ किया।
चीर खींचकर उसने इसको,
साधिकार निर्वस्त्र किया।

बस एक खिलौना है यह,
जो जीते उस पर खेले।
अपनी सम्पत्ति समझकर,
जो चाहे उससे ले ले ।

चले गये कौरव सदियो से,
चीरहरण अब भी जारी है।
प्रजातंत्र बनकर भारत मे,
फिर से द्रौपदी अवतारी है।
प्रवाह
-------------

उमड़ता घुमड़ता बह रहा है,
एक काला सैलाब,
पवित्र भारत माता की धरती पर।
अनगिनत चीखों-  चीत्कारों को,
अपने मे करता आत्मसात।
एक अनवरत प्रक्रिया में बहता,
और काले धब्बे सफेदी ओढ़,
जुड़ते रहते हैं परम्परा के साथ।
महान बन जाते हैं , काली माटी के वे पुतले,
जिन पर मुहल्ले के कुत्ते कभी,
विसर्जन करना तक पसन्द नही करते थे।
बह जाती है अनगिनत , कराहती घुटती सांसे,
न्याय का बन्द दरवाजा खटखटाते।
बस तैरती रहती हैं काले कोलातार से लिपी-पुती कुछेक कश्तियाॅ,
जिन पर बैठे होते हैं कुछ नकाबपोश हत्यारे।
और-
बचे खुचे चेहरों पर,
पुत् जाती हैं उनकी परछाइयाँ।
हर जगह पहरा है,
सौ-सौ पैरों वाले खनखजूरों का,
सरकारी जोंकों का,
जो हर समय किसी स्वादिष्ट खून की तलाश मे हैं।
सब कुछ लद बद हो गया है,
फिर भी -
पानी की निर्मलता ओढ़े,
काला सैलाब बहता ही जा रहा है,
अनिरुद्ध, अनवरत, अलख, अनिश्वर।
वसीयत
-----------

पहली की,
दूसरी की,
तीसरी की,
पीढी दर पीढ़ी की वसीयत,
अन्तर की गहन संक्रामकता,
फैल सकती थी प्रसूति गृह मे भी,
इसीलिए -
जला दिया है मैंने,
उसके पीछे वाली अपनी झोपड़ी।
और तैयार कर ली है,
एक चिता,
पेड़ों की कीड़े खाई टहनियों से,
उनपर की पराऋयी लताओं से,
पुरखों की सड़ी गली किताबों के पन्नों से,
डपोरशॅखी व्यवस्थाओं से,
परम्पराओं, मान्यताओं से,
ताकि मेरी संक्रामकता,
नवागँतुक के आने से पहले ही,
भष्म होकर उसे अछूता छोड़ दे,
बाप का बोझ
-----------------

हर साल यही होता।

हर अच्छी बारिश-
उसके हौसलों कच्चे बुलन्द कर जाती।
खेतों मे दिन पर दिन ,
पौधों की बढ़ती लम्बाई,
उसके अरमानो को और लम्बा कर जाती।
सरसों के पीले पीले फूलों मे,
वह अपनी बेटी के पीले होते हाथ देखता।
बच्चों के हँसते खिलखिलाते चेहरे देखता।
सहसा कुछ हो जाता।
बाढ आ जाती,
कभी सूखा पड़ जाता,
कभी पाला तो कभी ओला।
और-
पौधों का बढ़ना, फूलना, फलना
सब कुछ सहसा थम जाता।
थम जाती उसके चेहरे की चमक,
न थमता केवल समय,
जो उसकी बेटी को ,एक साल और बड़ा कर जाता।
कम हो जाती उसकी भूख,
बढ़ जाता झुंझलाना।
और मैंने देखा था-
ऐसा करते हर बार,
उनकी रीढ कुछ और झुक जाती।

चार लड़कियां तीन लड़के,
बड़ा परिवार।
मास्टरी का वेतन "ना" के बराबर।
खेती का बुरा हाल।
बड़े होते बच्चे, उनकी बढ़ती जरूरतें,
मैने देखा था अपने पिता को,
हवा मे उंगलियां नचाते हुए,
सम्भवतः कोई हिसाब लगाते हुए,
बार बार,
कितनी ही बार।
शायद समीकरण ठीक नही बैठ पाते।
कहीं वह अपने आप को लाचार पाते,
इसीलिए-
वह पहला हिसाब गलत कर ,दूसरा हिसाब फिर से लगाते।
वह यह क्रिया दोहराते तिहराते।
और-
मैने देखा था,
ऐसा करते हर बार,
उनके चेहरे की लकीरें कुछ और गहरा जाती।
उनके सिर के बाल कुछ और सफेद हो जाते।
उनकी रीढ कुछ और झुक जाती।

बच्चे हर साल एक बीता और बड़े हो जाते,बढ़ जाती उनके कपड़ों की नाप,
बड़ा हो जाता उनके स्कूल का बस्ता,
और-
बदल जाता उनके जूतों का नम्बर भी।
लेकिन बाप तो बाप होताहै।
वह बच्चों को खुशी के लिए,
कभी घोड़ा बन जाता है ,
तो कभी कन्धे पर बिठा उसे पालकी फिराता है।
और-
बच्चे की उन्मुक्त हंसी से ,
जैसे उसे स्वर्ग मिल जाता है।

सुनहरे सपने देखता वह,
"बड़े हो गए बच्चे,
उसके काम मे हाथ बताते बच्चे।
ऊंचे पदों पर आसीन बच्चे।
बड़े बड़े लोगों से हाथ मिलाते बच्चे।"
सहसा उसका खून गर्म हो जाता,
उसका सिर सीने की सीधी मे तन जाता।
उसके चेहरे की चमक वापस आ जाती,
और उसे लगता-
साइकिल की नंगी लोहे की पैडल पर जमे उसके पैर-
और अधिक मजबूत हो गये हैं।
गले मे फंसे बलगम को वह खांसकर साफ करता,
और-
और अधिक ताकत लगाकर,
साइकिल के पैडल को,
तेजी से चलाने लगता।