Monday, March 26, 2018

बोनसाई के पेड़
---------------------

विदेश में घूमते मैंने देखे,
साफ सुथरे शहर,
हंसते चहकते चेहरे।
चुस्त-दुरुस्त अनुशासन,
पुलिस के दुरुस्त पहरे।
गाडि़यां हवाओं से करतीं बातें।
इमारतें ऊंचाइयों को देती मातें।
और विग्यान की एक से एक करामातें।
घूमते घूमते मैं पहुंच गया एक नुमाइश।
बोनसाई के पेड़ो की नुमाइश।
नाना प्रकार के,
विभिन्न  आकार विकार के।
कतारों में करीने से लगे हुए।
छोटे छोटे पात्रों में -
काॅटे छाॅटे सजे हुए।
सौ डेढ सौ साल के पुराने बोनसाई के पेड़।
बस दो दो तीन तीन बीते लम्बे
बोनसाई के बौने बौने पेड़।
मुझसे न रहा गया।
पेड़ो का यह बौनापन न सहा गया।
मैने गाइड से कर डाला यह सवाल।
भाई कैसे किया यह कमाल।
कि सौ साल का यह बरगद।
और बस दो बीते का कद।
वह लगातार मुझे समझाने।
बोनसाई तकनीक के माने।
हर दो महीने मे
पेड़ को पात्र से निकाल दिया जाता है।
और उसकी जड़ों को काॅट छाॅट
दिया जाता है।
उलझन समाप्त हो गयी।
बात एकदम साफ हो गई।
सच है,
जिसकी जड़ें न हो
भला कैसे उभर सकता है।
कैसे पनप सकता है ।
कैसे बढ़ सकता है।
बरबस अपना देश याद आ गया।
भीड़ और गरीबी का चित्र
मन पर छा गया।
बुझे चिंतित चेहरे याद आ गये।
चितेरों के मुखौटों में लुटेरे याद आ गये।
सोने की चिड़िया कहलाने वाला देश।
क्यों नही बढ़ पाता अपना प्यारा भारत देश।
क्योंकि  हम भी एक-दूसरे की
जड़े काटते रहते हैं।
मजहब भाषा तो कभी जाति
के नाम पर,
देश को तोड़ते बांटते रहते हैं।
यह सोचकर भी डर लगता है कि
यह सब चलते,
टूटते, बिखरते,
अपना भारत महान  कहीं बन न जाये एक बोनसाई भारत।
जड़हीन, शक्तिहीन, कीर्ति हीन भारत।

No comments: