Monday, March 26, 2018

कुरुक्षेत्र की तलाश मे
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मै सुबह तड़के ही ,
मुर्गे की बाॅग के साथ उठ जाता हूं,
रथ मे बैठे अर्जुन किसन कन्हाई को निहारता,
जिन्हे मेरी माॅ बाजार से खरीद लायी थी।
घर से निकलते समय,
प्रायः ही मुझे मेरी कुतिया,
आलाप साधने के सुर मे,
रोती मिलती है।
और-
मैने सुना है- कि,
कुत्ते का इस तरह रोना,
अपशकुन होता है।
भय से अपने आप मे सिकुड़ता,
उन अस्वीकृत मान्यताओं के सामने,
जो सामने के मन्दिर में,
नानाकार रूपों मे उपस्थित हैं,
अपना सिर झुका ही देता हूं।
सुबह से शाम तक,
नौकरी की तलाश मे,
अखबारों के विज्ञापनों मे,
इन्टरव्यू की कतारों मे,
और-
कितनी ही समस्याओं मे,
गणनाओं मे,
अपने आप को धँसाये रहने के बाद,
शाम को जब वापस लौटता हूॅ,
तब भी,
मेरे अन्तः की कुतिया,
मुझे कूकती ही मिलती है।


खरीद फरोख्त मे बिकती नौकरियाँ,
रिश्तों और पहुंच से बटती नौकरियाँ,
जाति - धर्म के नाम, लुटती नौकरियाँ।
मुट्ठियाॅ बँध जाती हैं,
हाथ भिंच जाते हैं,
और- मैं,
भिंचे हाथों की तकिया लगाकर,
सोकर,
फिर उठ जाता हूॅ अगली सुबह,
किसी कुरुक्षेत्र की तलाश में।
रथ मे बैठे अर्जुन किसन कन्हाई को निहारता,
अपने अन्तर्द्वन्दों से जूझता,
जिजीविषा के महाभारत मे,
जीवन के कुरुक्षेत्रीय मैदान मे,
अकेला खड़ा ,
मुझे ऐसा लगता है,
कि मैं  हूॅ "पार्थ" ,
असमंजस मे फंसा ,
भविष्य की उहापोह मे धंसा,
भारत का युवा पार्थ।
अकेला,
नितांत अकेला।
न पांडु भाई हैं,
न पार्थसारथी,
जो मुझे आवाज दे-"उत्तिष्ठ भारतः",
शायद यह युद्ध मुझे अकेले ही लड़ना है,
लेकिन एक बात बता दूं,
जहां सिर्फ कौरव हों,
महाभारत सम्भव नही।
शिशिर की रात
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सिकुड़ रहा ठंडक से
बृद्ध एक भिछुक था,
चाहता था पैसे कुछ
जीवन चलाने को।
पर हाय नही सुनता था,
कोई भी राहगीर ,
दर्द भरी , व्यथा भरी,
उसकी पुकारों को।
मानव की कौन कहे,
उसका प्रतिपालक भी,
करता था ऊपर से वर्षा तुषार की।
और उसकी जननी,
यह वन्दनीया अवनी भी,
खींचती थी चुपके से,
ऊष्मा शरीर की।
इसीलिए जोर जोर गीत वह गाता था,
जानने को,
जिन्दा है या है मरा हुआ।

मछली मछली कित्ता पानी
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कित्ता पानी कित्ता पानी।
मछली मछली कित्ता पानी।
नदी किनारे आकर बैठी,
पूछे मछुआरों की रानी।
मछली मछली कित्ता पानी।
झुंडों मे आ कहतीं मछली,
इत्ता पानी इत्ता पानी।
प्रतिवर्ष इस तरह आती जाती,
गाती मछुआरों की रानी।
झुंडों मे आ मछली कहतीं,
इत्ता पानी इत्ता पानी।
हाय हुआ क्या इस बारी,
कि आई मछुआरों की रानी।
पूछे बैठे नदी किनारे,
मछली  मछली कित्ता पानी।
कोई उत्तर नहीं मिला तो,
उसको हुई बड़ी हैरानी।
बार बार आवाज लगाये,
मछली मछली कित्ता पानी।
बेसब्री मे आखिर उसने ,
फिर से यह आवाज लगाई।
थोड़ी हलचल हुई लहर मे,
एक बूढ़ी मछली बाहर आई।
बची-खुची उर्जा अर्जित कर,
थोड़ा हिली और वह डोली।
टूट रहे स्वर में,साहस कर,
बूढ़ी मछली फिर यूँ बोली।
यहां नही कोई मछली अब,
किसे पुकार रही हो रानी।
कैसे तुम्हे बताऊं अब मैं,
बित्ता पानी बित्ता पानी।
उद्योगों से निकला कचरा,
कारों का जहरीला तेल।
गन्दे नालों से हो आता,
दुनिया का सारा मल मैल।
इन सबसे जल हुआ प्रदूषित,
कब तक पी सकते थे हम।
इधर प्रदूषण उधर मछेरे,
कब तक जी सकते थे हम।
सूख गए सब ताल तलैये,
जिनमे मैं क्रीड़ा करती थी।
अपने पिय के संग संग मैं,
जहां प्रसव पीड़ा करती थी।
मछुआरों ने ऐसे ऐसे,
लघु छिद्रों के जाल बिछाये।
चार दिनों के छौने मेरे,
उन जालों के गाल समाये।
छोटे छोटे दिल के टुकड़े,
पकड़ ले गये वे हत्यारे।
बैठी बैठो नदी किनारे,
अब रानी तू किसे पुकारे।
हरे हो गये घाव याद के,
मछली सिसक सिसक रोती है,
अपनो के खोने की पीड़ा,
कितनी दर्द भरी होती है।
जाओ जाओ अपने घर तुम,
अब मत मुझे पुकारो रानी।
मेरी सांसे भी बुझने को, मत पूछो  कि कित्ता पानी।
कित्ता पानी कित्ता पानी।
चीरहरण अब भी जारी है
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द्यूत जीतकर जो भी आया,
उसने इसे पदस्थ किया।
चीर खींचकर उसने इसको,
साधिकार निर्वस्त्र किया।

बस एक खिलौना है यह,
जो जीते उस पर खेले।
अपनी सम्पत्ति समझकर,
जो चाहे उससे ले ले ।

चले गये कौरव सदियो से,
चीरहरण अब भी जारी है।
प्रजातंत्र बनकर भारत मे,
फिर से द्रौपदी अवतारी है।
प्रवाह
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उमड़ता घुमड़ता बह रहा है,
एक काला सैलाब,
पवित्र भारत माता की धरती पर।
अनगिनत चीखों-  चीत्कारों को,
अपने मे करता आत्मसात।
एक अनवरत प्रक्रिया में बहता,
और काले धब्बे सफेदी ओढ़,
जुड़ते रहते हैं परम्परा के साथ।
महान बन जाते हैं , काली माटी के वे पुतले,
जिन पर मुहल्ले के कुत्ते कभी,
विसर्जन करना तक पसन्द नही करते थे।
बह जाती है अनगिनत , कराहती घुटती सांसे,
न्याय का बन्द दरवाजा खटखटाते।
बस तैरती रहती हैं काले कोलातार से लिपी-पुती कुछेक कश्तियाॅ,
जिन पर बैठे होते हैं कुछ नकाबपोश हत्यारे।
और-
बचे खुचे चेहरों पर,
पुत् जाती हैं उनकी परछाइयाँ।
हर जगह पहरा है,
सौ-सौ पैरों वाले खनखजूरों का,
सरकारी जोंकों का,
जो हर समय किसी स्वादिष्ट खून की तलाश मे हैं।
सब कुछ लद बद हो गया है,
फिर भी -
पानी की निर्मलता ओढ़े,
काला सैलाब बहता ही जा रहा है,
अनिरुद्ध, अनवरत, अलख, अनिश्वर।
वसीयत
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पहली की,
दूसरी की,
तीसरी की,
पीढी दर पीढ़ी की वसीयत,
अन्तर की गहन संक्रामकता,
फैल सकती थी प्रसूति गृह मे भी,
इसीलिए -
जला दिया है मैंने,
उसके पीछे वाली अपनी झोपड़ी।
और तैयार कर ली है,
एक चिता,
पेड़ों की कीड़े खाई टहनियों से,
उनपर की पराऋयी लताओं से,
पुरखों की सड़ी गली किताबों के पन्नों से,
डपोरशॅखी व्यवस्थाओं से,
परम्पराओं, मान्यताओं से,
ताकि मेरी संक्रामकता,
नवागँतुक के आने से पहले ही,
भष्म होकर उसे अछूता छोड़ दे,
बाप का बोझ
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हर साल यही होता।

हर अच्छी बारिश-
उसके हौसलों कच्चे बुलन्द कर जाती।
खेतों मे दिन पर दिन ,
पौधों की बढ़ती लम्बाई,
उसके अरमानो को और लम्बा कर जाती।
सरसों के पीले पीले फूलों मे,
वह अपनी बेटी के पीले होते हाथ देखता।
बच्चों के हँसते खिलखिलाते चेहरे देखता।
सहसा कुछ हो जाता।
बाढ आ जाती,
कभी सूखा पड़ जाता,
कभी पाला तो कभी ओला।
और-
पौधों का बढ़ना, फूलना, फलना
सब कुछ सहसा थम जाता।
थम जाती उसके चेहरे की चमक,
न थमता केवल समय,
जो उसकी बेटी को ,एक साल और बड़ा कर जाता।
कम हो जाती उसकी भूख,
बढ़ जाता झुंझलाना।
और मैंने देखा था-
ऐसा करते हर बार,
उनकी रीढ कुछ और झुक जाती।

चार लड़कियां तीन लड़के,
बड़ा परिवार।
मास्टरी का वेतन "ना" के बराबर।
खेती का बुरा हाल।
बड़े होते बच्चे, उनकी बढ़ती जरूरतें,
मैने देखा था अपने पिता को,
हवा मे उंगलियां नचाते हुए,
सम्भवतः कोई हिसाब लगाते हुए,
बार बार,
कितनी ही बार।
शायद समीकरण ठीक नही बैठ पाते।
कहीं वह अपने आप को लाचार पाते,
इसीलिए-
वह पहला हिसाब गलत कर ,दूसरा हिसाब फिर से लगाते।
वह यह क्रिया दोहराते तिहराते।
और-
मैने देखा था,
ऐसा करते हर बार,
उनके चेहरे की लकीरें कुछ और गहरा जाती।
उनके सिर के बाल कुछ और सफेद हो जाते।
उनकी रीढ कुछ और झुक जाती।

बच्चे हर साल एक बीता और बड़े हो जाते,बढ़ जाती उनके कपड़ों की नाप,
बड़ा हो जाता उनके स्कूल का बस्ता,
और-
बदल जाता उनके जूतों का नम्बर भी।
लेकिन बाप तो बाप होताहै।
वह बच्चों को खुशी के लिए,
कभी घोड़ा बन जाता है ,
तो कभी कन्धे पर बिठा उसे पालकी फिराता है।
और-
बच्चे की उन्मुक्त हंसी से ,
जैसे उसे स्वर्ग मिल जाता है।

सुनहरे सपने देखता वह,
"बड़े हो गए बच्चे,
उसके काम मे हाथ बताते बच्चे।
ऊंचे पदों पर आसीन बच्चे।
बड़े बड़े लोगों से हाथ मिलाते बच्चे।"
सहसा उसका खून गर्म हो जाता,
उसका सिर सीने की सीधी मे तन जाता।
उसके चेहरे की चमक वापस आ जाती,
और उसे लगता-
साइकिल की नंगी लोहे की पैडल पर जमे उसके पैर-
और अधिक मजबूत हो गये हैं।
गले मे फंसे बलगम को वह खांसकर साफ करता,
और-
और अधिक ताकत लगाकर,
साइकिल के पैडल को,
तेजी से चलाने लगता।
अदने की मां
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लोग आते ,
समझाते।

मै रोता था, बिलखता था,
माँ के बिना लाचार बेजान।
जन्म और मृत्यु के रहस्यों से अनजान।
मैं मां से मिलने को आकुल था,
मन व्याकुल था।
मेरी माँ घर के ही एक गव्हर कक्ष मे,
मेरी बहन को जन्म देने गयी थी।

लोग आते , समझाते।
रो मत बेटा,
जल्दी ही आ जायेगी माॅ।
तेरे लिए खिलौना लेने गयी है तेरी माँ।

मैं रोता रहता, बिलखता रहता।
लेकिन लौटकर नही आयी मेरी माॅ।
दिनों महीनों सालों-साल।
मैं रोता रहता, बिलखता रहता।
लोग आते समझाते।
माॅ भगवान् के घर गयी है,
जल्दी ही आयेगी।
तुम्हारे लिए ढेर सारे खिलौने,
और मिठाइयां लायेगी।
अनवरत प्रतीक्षा मे आँखें पथरा गईं,
पर मेरी माॅ लौटकर नही आयी।

घर के सामने के चबूतरे पर,
रखे दो गोल मटोल पत्थर।
जिन्हे  लोग पूजते और कहते,
ये है  विष्णु और शंकर।
हमारे भगवान् हैं।
सृष्टि के बनाने वाले,
बहुत शक्तिशाली बलवान हैं।
कुछ भी कर सकने मे सामर्थ्य वान हैं।
जब सब चले जाते,
सुनसान हो जाता,
मैं चुपके से जाता, सामर्थ्य वान भगवान् के पास।
लगाकर आश।
सिर झुकाता, पैर पड़ता,
मिन्नतें करता, गिड़गिड़ाता,
कि वह जल्दी मेरी माॅ को वापस भेज दे,
या
बुला ले, मुझको माॅ के पास।

लोग आते , समझाते,
कि माॅ बन गई है एक सितारा,
अच्छे लोगों को ईश्वर पुरस्कार देता है,
और बना देता है आकाश का चमचमाता सितारा।
रात रात भर , मैं आँगन मे लेटा,
टिमटिमाते सितारों को निहारता रहता,
तारों की अनगिनत भीड़ मे खोजता रहता,
अनवरत , अपलक,
लेकिन माॅ कहीं ढूंढे नही मिलती।
मिलती भी कैसे,
मेरी मां मर गयी थी।
धाई पूसा के  हाथों।
जो घर के हॅसिया खुरपी और चिमटे से ही बच्चे का जन्म करा देती थी।
या
गांव के नीम हकीम गंगा पंडित के हाथों,
जिनके पास हर रोग की बस एक दवा थी संजीवनी गोली।
या
उस लाचार व्यवस्था के हाथों,

लेकिन मेरी माॅ तो मर गयी।

आज भी, दसियों सालों बाद भी,
बदला नही कुछ भी।
वही गोल मटोल विष्णु और शंकर।
वही झुके सिर ,अपनी विपदाओं के खोजते उत्तर।
और-
असमर्थ सामर्थ्य वान के मूक उत्तर।

मुझे अहसास होता है,
आज भी,
रोता बिलखता खड़ा हूॅ मैं प्रसूति घर के बाहर ।
और -
अन्दर मर रही है मेरी माॅ।
बुजुर्ग का खत - नयी पीढ़ी के नाम
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मुझको थोड़ा प्यार दे दो।

जीवन के सभी अनमोल लम्हों को,
निछावर कर गया मैं नौनिहालो पर,
हँसते हुए , रोते हुए, मै जी गया,
लालों की खुशहाली के ख्यालों पर।

उम्र के आवे मे अपने को पका कर,
तुम्हारे आज को हमने सजाया है।
सूरज की चांदनी मे तपते हुये भी,
सुनहरे विश्व को हमने रचाया है।

बूढ़ा  हूं जर्जर हूं उम्र से लाचार हूं मैं,
मेरे बच्चो
तुम्हारे पल पल का इतिहास हूं मैं।
प्यार का भूखा हूं, बस थोड़ा सा प्यार दे दो,
तुम्हारा पिता हूं, पितामह हूं,
शुभ हूं आशीर्वाद हूँ मैं।

आओ लिपट जाओ गले से,
बाँहों का गलहार दे दो।
थोड़ा मुझको प्यार दे दो।

तुम्हारी खिलखिलाती हँसी ही,
मेरी जिंदगी का एक मकसद थी,
स्वर्ग को लाकर तुम्हारे सामने रख दूं ,
हमेशा ही यही, बस एक हसरत थी।


तुम्हारा हर सुख, हर दुख,
कभी मेरा हुआ करता था।
हर छण हर पल तुम्हारे पास था मैं।

मुझे कुछ भी न चाहिए, पूर्ण हूॅ, परिपूर्ण हूं मैं।
हर तरह से तृप्त हूं, सम्पूर्ण हूं मैं।
प्यार की अतृप्त प्यास बाकी बस,
अपने प्यार को चुम्बन बनाकर,
बस यही उपहार दे दो।
मुझको थोड़ा प्यार दे दो।

जब से गये परदेश तुम ,
तुम्हारी मां बस रोती रहती है।
ढूंढ ढूंढ कर तेरी चीज़े ,
उन्हे सॅजोती रहती है ।

चिन्ता तेरे सेहत की बस,
उसे सताती रहती है।
घर आया, कुछ खाया कि नही,
यह दिन भर रटती रहती है।

डगमग होते पैर, कांपते हाथ,
न जाने कितने दिन चल पायेंगे।
बिना तुम्हारे हम दोनों ही,
अधिक नही जी पायेंगे।

बेटे तू अब लौट के आ जा,
घर की रोटी अच्छी है।
अपने घर परिवार की खुशिया,
कम ही सही पर सच्ची हैं।

जीतकर सारा जहां,
जब लौटकर तुम आओगे।
कहीं देर न हो जाये,
फिर हमसे नहीं  मिल पाओगे।
आ जाओ , आकर ,
लिपट जाओ गले से,
बाहों का गलहार दे दो।
हमको थोड़ा प्यार दे दो।
सच
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चबूतरे पर रखे नानाकार पत्थर,
बीच मे त्रिशूल।
कितने ही लोग आते,
चढ़ाते माला फूल।
लोग आते,
प्रश्नचिन्ह लगी , अपनी आशाओं को,
इनके हवाले कर जाते।
मैंने देखा है लोगो को,
यह क्रिया दोहराते तिहराते।
एक दिन पास आकर देखता हूं,
पत्थरों के आसपास पास बिखरे पड़े हैं -
सूखे विल्व पत्र ,धतूर।
टूटी फूटी चूड़ियाँ,
अक्षत , सिन्दूर।
और  पीपल के पेड़ में -
थोड़ी ही दूर।
लटकी हैं छोटी छोटी पुटलियां , पुटके।
नींबू और मिर्च के,
टोने-टोटके ।
सोचता हूॅ - सच क्या है?
क्या यही है दुनिया की रचना करनेवाला?
उसको चलाने वाला?
उसका कर्ता धर्ता,
सबका दुख हर्ता?
क्या ऐसी ही भाषायें समझता है वह?
क्या इतना गया गुजरा है वह?
मैं बैठा अपनी उलझनों का समाधान खोज रहा हूं।
और-
बगल मे बैठा मन्दिर का पुजारी,
चढ़ावे के पैसे गिन रहा है।
छू मन्तर सपना
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कल रात  जब मै,
बिस्तर पर लेटा।
बिना ओर छोर का,
अजीब सपना देखा।

देखा एक बुढ़िया बेहाल,
फटे चीथडों में लिपटी है।
एक पोटली धरोहर सी,
उसके हाथों मे लटकी है।

मुझे देखते ही वह,
याचक की मुद्रा बनाती है।
तरस करने को कहती,
अपनी दुर्दशा दर्शाती है।

बोली एक दिन मैं भी,
बड़ी ऐश्वर्य वान थी।
मानित सम्मानित थी,
सुन्दर धनवान थी।

गौरवशाली इतिहास के,
किस्से वह सुनाती है।
पोटली से अतीत के,
सब साक्ष ला दिखाती है।

ऐश्वर्य के वैभव के,
सब चित्र दर्शाती है।
अपनों ने ही लूट लिया,
कैसे वह बताती है।

उसके दर्द सुनकर ,
मेरा मन पसीज गया।
छुब्ध दुखी मन  मेरा,
उसके अपनों पर खीज गया।

इसके पहले कि मैं ,
उसको कुछ थमा पाता।
उसके दुखी मन पर,
कुछ मरहम लगा पाता।

वहां छू मन्तर जादुई,
एक बिजली सी चमक गई।
और
ठठरी बुढ़िया अचानक ही,
भारत मां के नक्शे मे बदल गई।
बोनसाई के पेड़
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विदेश में घूमते मैंने देखे,
साफ सुथरे शहर,
हंसते चहकते चेहरे।
चुस्त-दुरुस्त अनुशासन,
पुलिस के दुरुस्त पहरे।
गाडि़यां हवाओं से करतीं बातें।
इमारतें ऊंचाइयों को देती मातें।
और विग्यान की एक से एक करामातें।
घूमते घूमते मैं पहुंच गया एक नुमाइश।
बोनसाई के पेड़ो की नुमाइश।
नाना प्रकार के,
विभिन्न  आकार विकार के।
कतारों में करीने से लगे हुए।
छोटे छोटे पात्रों में -
काॅटे छाॅटे सजे हुए।
सौ डेढ सौ साल के पुराने बोनसाई के पेड़।
बस दो दो तीन तीन बीते लम्बे
बोनसाई के बौने बौने पेड़।
मुझसे न रहा गया।
पेड़ो का यह बौनापन न सहा गया।
मैने गाइड से कर डाला यह सवाल।
भाई कैसे किया यह कमाल।
कि सौ साल का यह बरगद।
और बस दो बीते का कद।
वह लगातार मुझे समझाने।
बोनसाई तकनीक के माने।
हर दो महीने मे
पेड़ को पात्र से निकाल दिया जाता है।
और उसकी जड़ों को काॅट छाॅट
दिया जाता है।
उलझन समाप्त हो गयी।
बात एकदम साफ हो गई।
सच है,
जिसकी जड़ें न हो
भला कैसे उभर सकता है।
कैसे पनप सकता है ।
कैसे बढ़ सकता है।
बरबस अपना देश याद आ गया।
भीड़ और गरीबी का चित्र
मन पर छा गया।
बुझे चिंतित चेहरे याद आ गये।
चितेरों के मुखौटों में लुटेरे याद आ गये।
सोने की चिड़िया कहलाने वाला देश।
क्यों नही बढ़ पाता अपना प्यारा भारत देश।
क्योंकि  हम भी एक-दूसरे की
जड़े काटते रहते हैं।
मजहब भाषा तो कभी जाति
के नाम पर,
देश को तोड़ते बांटते रहते हैं।
यह सोचकर भी डर लगता है कि
यह सब चलते,
टूटते, बिखरते,
अपना भारत महान  कहीं बन न जाये एक बोनसाई भारत।
जड़हीन, शक्तिहीन, कीर्ति हीन भारत।
शिनाख्त
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गली नुक्कड़ हर चौराहा,
खून से रंगा हुआ है।
आज मेरे शहर में,
साम्प्रदायिक दंगा हुआ है।

जगह-जगह लूट और,
मौत के मंजर हैं,
हर ऑख में खून और,
हाथो में खंजर हैं।

शहर का शहर अब,
वीरान हो गया है,
जो जिन्दा दिल धड़कता था,
शमशान हो गया है।

मैं खिड़की से बाहर के-
तान्डव को आंकता हूं.
खोखली ईन्सानियत के,
समीकरण नापता हूं।

चारों तरफ बिखरी पड़ी हैं,
लाशें ही लाशें।
ज्यो घनघोर सावन में,
हों बरस गई लाशें।

रात हो चली है और,
अंधेरा घिर आया है।
एक भयावह सुनसान ,
सन्नाटा छाया है।

सम्भव है कि इनमे से-
अजीज कोई अपना हो।
बाकी हो सांसें,
शेष जीने का सपना हो।

मैं बाहर निकलता हूँ,
इधर उधर खोजता हूं।
पास पड़ी लाश का,
चेहरा टटोलता हूूं।

स्पर्श से ऊंगलियों के,
जो चित्र उभर आता है।
वह हू बहू मेरे ही-
चेहरे से मेल खाता है।

मैं बदहवास अनगिनत -
लाशें टटोल आता हूॅ।
मगर हर लाश के चेहरे पर-
अपने आप को ही पाता हूॅ।

Friday, March 23, 2018

 सियावर रामचन्द्र की जय
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सत्यनारायण के चक्कर में,
दुनिया ऐसे जकड़ गई है।
जैसे ताल तलैया तीरे,
कसकर काई पकड़ गई है।
लीला-कलावती की चक्की,
मानुष बन गया पंजीरी।
बोलो सियावर रामचन्द्र की जय।

सत्यनारायण कथा सुने जो,
पाप कलुष सब धुल जाते हैं।
धन दौलत , दुनिया के सब सुख,
अपने आप बरस जाते हैं।
भाग्य और भव से सम्मोहित,
कोई करे न काम।
जीवन बीता आश लगाये,
कि भेजेगा भगवान्।
बोलो सियावर रामचन्द्र की जय।

जग माया है, धन माया है,
घर माया, घरवाली माया।
मन्दिर और कमंडल कहकर,
अकर्मण्यता का पाठ पढ़ाया।
दिखा सभी को मायादर्पण,
ठगुये माल बटोर ले गए।
बोलो सियावर रामचन्द्र की जय।
: फटी रजाई , खाली पेट
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चुनमुन गौरैया की नींद उचाट गयी।

फटी हुई रजाई,
टूटी हुई खाट।
एक ही रजाई मे,
बच्चे ,मां, बाप ।

लगआई भूख,
तो उठ आया चुन्नू।
खाली पेट नींद कहां?
जाग गया पुन्नू।

धूप भिनसार की?
आँगन बुहार गई।
चुनमुन गौरैया की,
नींद उचाट गई।

घर मे हैं पांच में से,
पांच मजदूर,
फिर भी पेट खाली हैं,
भूखे मजबुर।

महंगाई,पेट की -
सारी भूख मार गयी।
चुनमुन गौरैया की,
नींद उचाट गई ।
अपूर्ण अभिलाषा
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छील रहा गंगू हरी-हरी घास।

घास छीलते हुई, 
बूढ़ी  दो सांसे।
किन्तु पूरी हो न सकीं,
मन की अभिलाषें।
झुक गई कमर,
ढोते यह बोझा।
ला न सका एक दिन भी,
घर मे चिलगोजा।
चल बसी मेहरारू,
खाली मुराद ।
मन को यह बात ,
कर गयी उदास ।
छील रहा गंगू हरी-हरी घास।
: गांव की जीविका
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चुनुवा की महतारी,
पाथ रही कंडा।
ठाढे रोये चुनुवा ,
भूख से अन्धा।
बैरी यह पेट ,
कितना सताये।
दूसरे का गोबर चौका,
सब कुछ करवाये।
भा गोबर पथियावत ,
भिनसार से सँझौका।
गांव की गरीबी का,
यही है जियौका।
: सलाम जिन्दगी 
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महँगू की बीमारी, घर की लाचारी।
गिरवी गई खेतीबाड़ी,
और रुकी बेगारी।

खत्म हुआ उधार, खत्म हुआ रोकङा।
बर्तन भांडा पहले बिके, फिर बिका झोपड़ा।

पैसे के बिना अब,
इलाज कहां होता है,
जिन्दगी को सलाम कर,
वह हर शाम सोता है।
 कुरुक्षेत्र की तलाश मे
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मै सुबह तड़के ही ,
मुर्गे की बाॅग के साथ उठ जाता हूं,
रथ मे बैठे अर्जुन किसन कन्हाई को निहारता,
जिन्हे मेरी माॅ बाजार से खरीद लायी थी।
घर से निकलते समय,
प्रायः ही मुझे मेरी कुतिया,
आलाप साधने के सुर मे,
रोती मिलती है।
और-
मैने सुना है- कि,
कुत्ते का इस तरह रोना,
अपशकुन होता है।
भय से अपने आप मे सिकुड़ता,
उन अस्वीकृत मान्यताओं के सामने,
जो सामने के मन्दिर में,
नानाकार रूपों मे उपस्थित हैं,
अपना सिर झुका ही देता हूं।
सुबह से शाम तक,
नौकरी की तलाश मे,
अखबारों के विज्ञापनों मे,
इन्टरव्यू की कतारों मे,
और-
कितनी ही समस्याओं मे,
गणनाओं मे,
अपने आप को धँसाये रहने के बाद,
शाम को जब वापस लौटता हूॅ,
तब भी,
मेरे अन्तः की कुतिया,
मुझे कूकती ही मिलती है।


खरीद फरोख्त मे बिकती नौकरियाँ,
रिश्तों और पहुंच से बटती नौकरियाँ,
जाति - धर्म के नाम, लुटती नौकरियाँ।
मुट्ठियाॅ बँध जाती हैं,
हाथ भिंच जाते हैं,
और- मैं,
भिंचे हाथों की तकिया लगाकर,
सोकर,
फिर उठ जाता हूॅ अगली सुबह,
किसी कुरुक्षेत्र की तलाश में।
रथ मे बैठे अर्जुन किसन कन्हाई को निहारता,
अपने अन्तर्द्वन्दों से जूझता,
जिजीविषा के महाभारत मे,
जीवन के कुरुक्षेत्रीय मैदान मे,
अकेला खड़ा ,
मुझे ऐसा लगता है,
कि मैं  हूॅ "पार्थ" ,
असमंजस मे फंसा ,
भविष्य की उहापोह मे धंसा,
भारत का युवा पार्थ।
अकेला,
नितांत अकेला।
न पांडु भाई हैं,
न पार्थसारथी,
जो मुझे आवाज दे-"उत्तिष्ठ भारतः",
शायद यह युद्ध मुझे अकेले ही लड़ना है,
लेकिन एक बात बता दूं,
जहां सिर्फ कौरव हों,
महाभारत सम्भव नही।
 किसान- गीता
-------------------

ग्राम देवता , हरि ओम तत्सत।
अन्न देवता , हरि ओम तत्सत।

भरता सबका पेट, भले ही,
उसका अपना खाली हो।
करता जग जीवन को सिंचित,
जैसे कोई माली हो।

जाड़ा, पाला, सूखा सहता,
जीवन-धारा बनी रहे,
किस मिट्टी का बना,न जाने,
कितने कितने कष्ट सहे।

वस्त्रहीन तन, आशहीन मन,
नंगे पैर , गला सूखा है,
सबका पेट अन्न से भरकर,
ग्राम देव खुद ही भूखा है।

दुनिया के रंगों से अविचल,
जाता सीधे अपने पथ।
ग्राम देवता हरि ओम तत्सत।

कर्म योग का असली योगी,
हलधर गीता जीता है।
"सुखदुखे समे कृत्वा",
चरणामृत सा पीता है।

मृत बीजों को , करे प्राणमय,
प्यार सींचकर उन्हे बढ़ाता।
फल फूलों से परिपूरित कर,
सारे जग की भूख मिटाता।

बीजों से जीवन अंकुरता,
जीवन पुनः बीज बन जाता।
शाश्वत आत्मा, तन क्षणभंगुर,
सबकी समझ सहज कर जाता।

महावृष्टि या अनावृष्टि से,
जब उसका सब कुछ खो जाता है।
"कर्मण्येवाधिकारस्ते ",
वह पुन: बीज बोकर आता है।

यह मुरलीधर या हलधर किसान,
मै भ्रम मे हूॅ, कि क्या है सच।
ग्राम देवता हरि ओम तत्सत।

Thursday, March 22, 2018


meri kavitayen


MERI KAVITAYEN
 1-शिनाख्त
---------------

गली नुक्कड़ हर चौराहा,
खून से रंगा हुआ है।
आज मेरे शहर में,
साम्प्रदायिक दंगा हुआ है।

जगह-जगह लूट और,
मौत के मंजर हैं,
हर ऑख में खून और,
हाथो में खंजर हैं।

शहर का शहर अब,
वीरान हो गया है,
जो जिन्दा दिल धड़कता था,
शमशान हो गया है।

मैं खिड़की से बाहर के-
तान्डव को आंकता हूं.
खोखली ईन्सानियत के,
समीकरण नापता हूं।

चारों तरफ बिखरी पड़ी हैं,
लाशें ही लाशें।
ज्यो घनघोर सावन में,
हों बरस गई लाशें।

रात हो चली है और,
अंधेरा घिर आया है।
एक भयावह सुनसान ,
सन्नाटा छाया है।

सम्भव है कि इनमे से-
अजीज कोई अपना हो।
बाकी हो सांसें,
शेष जीने का सपना हो।

मैं बाहर निकलता हूँ,
इधर उधर खोजता हूं।
पास पड़ी लाश का,
चेहरा टटोलता हूूं।

स्पर्श से ऊंगलियों के,
जो चित्र उभर आता है।
वह हू बहू मेरे ही-
चेहरे से मेल खाता है।

मैं बदहवास अनगिनत -
लाशें टटोल आता हूॅ।
मगर हर लाश के चेहरे पर-
अपने आप को ही पाता हूॅ।



2- अदने की मां
------------------

लोग आते ,
समझाते।

मै रोता था, बिलखता था,
माँ के बिना लाचार बेजान।
जन्म और मृत्यु के रहस्यों से अनजान।
मैं मां से मिलने को आकुल था,
मन व्याकुल था।
मेरी माँ घर के ही एक गव्हर कक्ष मे,
मेरी बहन को जन्म देने गयी थी।

लोग आते , समझाते।
रो मत बेटा,
जल्दी ही आ जायेगी माॅ।
तेरे लिए खिलौना लेने गयी है तेरी माँ।

मैं रोता रहता, बिलखता रहता।
लेकिन लौटकर नही आयी मेरी माॅ।
दिनों महीनों सालों-साल।
मैं रोता रहता, बिलखता रहता।
लोग आते समझाते।
माॅ भगवान् के घर गयी है,
जल्दी ही आयेगी।
तुम्हारे लिए ढेर सारे खिलौने,
और मिठाइयां लायेगी।
अनवरत प्रतीक्षा मे आँखें पथरा गईं,
पर मेरी माॅ लौटकर नही आयी।

घर के सामने के चबूतरे पर,
रखे दो गोल मटोल पत्थर।
जिन्हे  लोग पूजते और कहते,
ये है  विष्णु और शंकर।
हमारे भगवान् हैं।
सृष्टि के बनाने वाले,
बहुत शक्तिशाली बलवान हैं।
कुछ भी कर सकने मे सामर्थ्य वान हैं।
जब सब चले जाते,
सुनसान हो जाता,
मैं चुपके से जाता, सामर्थ्य वान भगवान् के पास।
लगाकर आश।
सिर झुकाता, पैर पड़ता,
मिन्नतें करता, गिड़गिड़ाता,
कि वह जल्दी मेरी माॅ को वापस भेज दे,
या
बुला ले, मुझको माॅ के पास।

लोग आते , समझाते,
कि माॅ बन गई है एक सितारा,
अच्छे लोगों को ईश्वर पुरस्कार देता है,
और बना देता है आकाश का चमचमाता सितारा।
रात रात भर , मैं आँगन मे लेटा,
टिमटिमाते सितारों को निहारता रहता,
तारों की अनगिनत भीड़ मे खोजता रहता,
अनवरत , अपलक,
लेकिन माॅ कहीं ढूंढे नही मिलती।
मिलती भी कैसे,
मेरी मां मर गयी थी।
धाई पूसा के  हाथों।
जो घर के हॅसिया खुरपी और चिमटे से ही बच्चे का जन्म करा देती थी।
या
गांव के नीम हकीम गंगा पंडित के हाथों,
जिनके पास हर रोग की बस एक दवा थी संजीवनी गोली।
या
उस लाचार व्यवस्था के हाथों,
जो कुछ लुटेरों की रखैल हो गई।

लेकिन मेरी माॅ तो मर गयी।

आज भी, दसियों सालों बाद भी,
बदला नही कुछ भी।
वही गोल मटोल विष्णु और शंकर।
वही झुके सिर ,अपनी विपदाओं के खोजते उत्तर।
और-
असमर्थ सामर्थ्य वान के मूक उत्तर।

मुझे अहसास होता है,
आज भी,
रोता बिलखता खड़ा हूॅ मैं प्रसूति घर के बाहर ।
और -
अन्दर मर रही है मेरी माॅ।

3- बोनसाई के पेड़
---------------------

विदेश में घूमते मैंने देखे,
साफ सुथरे शहर,
हंसते चहकते चेहरे।
चुस्त-दुरुस्त अनुशासन,
पुलिस के दुरुस्त पहरे।
गाडि़यां हवाओं से करतीं बातें।
इमारतें ऊंचाइयों को देती मातें।
और विग्यान की एक से एक करामातें।
घूमते घूमते मैं पहुंच गया एक नुमाइश।
बोनसाई के पेड़ो की नुमाइश।
नाना प्रकार के,
विभिन्न  आकार विकार के।
कतारों में करीने से लगे हुए।
छोटे छोटे पात्रों में -
काॅटे छाॅटे सजे हुए।
सौ डेढ सौ साल के पुराने बोनसाई के पेड़।
बस दो दो तीन तीन बीते लम्बे
बोनसाई के बौने बौने पेड़।
मुझसे न रहा गया।
पेड़ो का यह बौनापन न सहा गया।
मैने गाइड से कर डाला यह सवाल।
भाई कैसे किया यह कमाल।
कि सौ साल का यह बरगद।
और बस दो बीते का कद।
वह लगातार मुझे समझाने।
बोनसाई तकनीक के माने।
हर दो महीने मे
पेड़ को पात्र से निकाल दिया जाता है।
और उसकी जड़ों को काॅट छाॅट
दिया जाता है।
उलझन समाप्त हो गयी।
बात एकदम साफ हो गई।
सच है,
जिसकी जड़ें न हो
भला कैसे उभर सकता है।
कैसे पनप सकता है ।
कैसे बढ़ सकता है।
बरबस अपना देश याद आ गया।
भीड़ और गरीबी का चित्र
मन पर छा गया।
बुझे चिंतित चेहरे याद आ गये।
चितेरों के मुखौटों में लुटेरे याद आ गये।
सोने की चिड़िया कहलाने वाला देश।
क्यों नही बढ़ पाता अपना प्यारा भारत देश।
क्योंकि  हम भी एक-दूसरे की
जड़े काटते रहते हैं।
मजहब भाषा तो कभी जाति
के नाम पर,
देश को तोड़ते बांटते रहते हैं।
यह सोचकर भी डर लगता है कि
यह सब चलते,
टूटते, बिखरते,
अपना भारत महान  कहीं बन न जाये एक बोनसाई भारत।
जड़हीन, शक्तिहीन, कीर्ति हीन भारत।

4-: बाप का बोझ
-----------------

हर साल यही होता।

हर अच्छी बारिश-
उसके हौसलों कच्चे बुलन्द कर जाती।
खेतों मे दिन पर दिन ,
पौधों की बढ़ती लम्बाई,
उसके अरमानो को और लम्बा कर जाती।
सरसों के पीले पीले फूलों मे,
वह अपनी बेटी के पीले होते हाथ देखता।
बच्चों के हँसते खिलखिलाते चेहरे देखता।
सहसा कुछ हो जाता।
बाढ आ जाती,
कभी सूखा पड़ जाता,
कभी पाला तो कभी ओला।
और-
पौधों का बढ़ना, फूलना, फलना
सब कुछ सहसा थम जाता।
थम जाती उसके चेहरे की चमक,
न थमता केवल समय,
जो उसकी बेटी को ,एक साल और बड़ा कर जाता।
कम हो जाती उसकी भूख,
बढ़ जाता झुंझलाना।
और मैंने देखा था-
ऐसा करते हर बार,
उनकी रीढ कुछ और झुक जाती।

चार लड़कियां तीन लड़के,
बड़ा परिवार।
मास्टरी का वेतन "ना" के बराबर।
खेती का बुरा हाल।
बड़े होते बच्चे, उनकी बढ़ती जरूरतें,
मैने देखा था अपने पिता को,
हवा मे उंगलियां नचाते हुए,
सम्भवतः कोई हिसाब लगाते हुए,
बार बार,
कितनी ही बार।
शायद समीकरण ठीक नही बैठ पाते।
कहीं वह अपने आप को लाचार पाते,
इसीलिए-
वह पहला हिसाब गलत कर ,दूसरा हिसाब फिर से लगाते।
वह यह क्रिया दोहराते तिहराते।
और-
मैने देखा था,
ऐसा करते हर बार,
उनके चेहरे की लकीरें कुछ और गहरा जाती।
उनके सिर के बाल कुछ और सफेद हो जाते।
उनकी रीढ कुछ और झुक जाती।

बच्चे हर साल एक बीता और बड़े हो जाते,बढ़ जाती उनके कपड़ों की नाप,
बड़ा हो जाता उनके स्कूल का बस्ता,
और-
बदल जाता उनके जूतों का नम्बर भी।
लेकिन बाप तो बाप होताहै।
वह बच्चों को खुशी के लिए,
कभी घोड़ा बन जाता है ,
तो कभी कन्धे पर बिठा उसे पालकी फिराता है।
और-
बच्चे की उन्मुक्त हंसी से ,
जैसे उसे स्वर्ग मिल जाता है।

सुनहरे सपने देखता वह,
"बड़े हो गए बच्चे,
उसके काम मे हाथ बताते बच्चे।
ऊंचे पदों पर आसीन बच्चे।
बड़े बड़े लोगों से हाथ मिलाते बच्चे।"
सहसा उसका खून गर्म हो जाता,
उसका सिर सीने की सीधी मे तन जाता।
उसके चेहरे की चमक वापस आ जाती,
और उसे लगता-
साइकिल की नंगी लोहे की पैडल पर जमे उसके पैर-
और अधिक मजबूत हो गये हैं।
गले मे फंसे बलगम को वह खांसकर साफ करता,
और-
और अधिक ताकत लगाकर,
साइकिल के पैडल को,
तेजी से चलाने लगता।

 5-: छू मन्तर सपना
--------------------

कल रात  जब मै,
बिस्तर पर लेटा।
बिना ओर छोर का,
अजीब सपना देखा।

देखा एक बुढ़िया बेहाल,
फटे चीथडों में लिपटी है।
एक पोटली धरोहर सी,
उसके हाथों मे लटकी है।

मुझे देखते ही वह,
याचक की मुद्रा बनाती है।
तरस करने को कहती,
अपनी दुर्दशा दर्शाती है।

बोली एक दिन मैं भी,
बड़ी ऐश्वर्य वान थी।
मानित सम्मानित थी,
सुन्दर धनवान थी।

गौरवशाली इतिहास के,
किस्से वह सुनाती है।
पोटली से अतीत के,
सब साक्ष ला दिखाती है।

ऐश्वर्य के वैभव के,
सब चित्र दर्शाती है।
अपनों ने ही लूट लिया,
कैसे वह बताती है।

उसके दर्द सुनकर ,
मेरा मन पसीज गया।
छुब्ध दुखी मन  मेरा,
उसके अपनों पर खीज गया।

इसके पहले कि मैं ,
उसको कुछ थमा पाता।
उसके दुखी मन पर,
कुछ मरहम लगा पाता।

वहां छू मन्तर जादुई,
एक बिजली सी चमक गई।
और
ठठरी बुढ़िया अचानक ही,
भारत मां के नक्शे मे बदल गई।

6-  सच
---------

चबूतरे पर रखे नानाकार पत्थर,
बीच मे त्रिशूल।
कितने ही लोग आते,
चढ़ाते माला फूल।
लोग आते,
प्रश्नचिन्ह लगी , अपनी आशाओं को,
इनके हवाले कर जाते।
मैंने देखा है लोगो को,
यह क्रिया दोहराते तिहराते।
एक दिन पास आकर देखता हूं,
पत्थरों के आसपास पास बिखरे पड़े हैं -
सूखे विल्व पत्र ,धतूर।
टूटी फूटी चूड़ियाँ,
अक्षत , सिन्दूर।
और  पीपल के पेड़ में -
थोड़ी ही दूर।
लटकी हैं छोटी छोटी पुटलियां , पुटके।
नींबू और मिर्च के,
टोने-टोटके ।
सोचता हूॅ - सच क्या है?
क्या यही है दुनिया की रचना करनेवाला?
उसको चलाने वाला?
उसका कर्ता धर्ता,
सबका दुख हर्ता?
क्या ऐसी ही भाषायें समझता है वह?
क्या इतना गया गुजरा है वह?
मैं बैठा अपनी उलझनों का समाधान खोज रहा हूं।
और-
बगल मे बैठा मन्दिर का पुजारी,
चढ़ावे के पैसे गिन रहा है।

7- बुजुर्ग का खत - नयी पीढ़ी के नाम
---------------------------------------

मुझको थोड़ा प्यार दे दो।

जीवन के सभी अनमोल लम्हों को,
निछावर कर गया मैं नौनिहालो पर,
हँसते हुए , रोते हुए, मै जी गया,
लालों की खुशहाली के ख्यालों पर।

उम्र के आवे मे अपने को पका कर,
तुम्हारे आज को हमने सजाया है।
सूरज की चांदनी मे तपते हुये भी,
सुनहरे विश्व को हमने रचाया है।

बूढ़ा  हूं जर्जर हूं उम्र से लाचार हूं मैं,
मेरे बच्चो
तुम्हारे पल पल का इतिहास हूं मैं।
प्यार का भूखा हूं, बस थोड़ा सा प्यार दे दो,
तुम्हारा पिता हूं, पितामह हूं,
शुभ हूं आशीर्वाद हूँ मैं।

आओ लिपट जाओ गले से,
बाँहों का गलहार दे दो।
थोड़ा मुझको प्यार दे दो।

तुम्हारी खिलखिलाती हँसी ही,
मेरी जिंदगी का एक मकसद थी,
स्वर्ग को लाकर तुम्हारे सामने रख दूं ,
हमेशा ही यही, बस एक हसरत थी।


तुम्हारा हर सुख, हर दुख,
कभी मेरा हुआ करता था।
हर छण हर पल तुम्हारे पास था मैं।

मुझे कुछ भी न चाहिए, पूर्ण हूॅ, परिपूर्ण हूं मैं।
हर तरह से तृप्त हूं, सम्पूर्ण हूं मैं।
प्यार की अतृप्त प्यास बाकी बस,
अपने प्यार को चुम्बन बनाकर,
बस यही उपहार दे दो।
मुझको थोड़ा प्यार दे दो।

जब से गये परदेश तुम ,
तुम्हारी मां बस रोती रहती है।
ढूंढ ढूंढ कर तेरी चीज़े ,
उन्हे सॅजोती रहती है ।

चिन्ता तेरे सेहत की बस,
उसे सताती रहती है।
घर आया, कुछ खाया कि नही,
यह दिन भर रटती रहती है।

डगमग होते पैर, कांपते हाथ,
न जाने कितने दिन चल पायेंगे।
बिना तुम्हारे हम दोनों ही,
अधिक नही जी पायेंगे।

बेटे तू अब लौट के आ जा,
घर की रोटी अच्छी है।
अपने घर परिवार की खुशिया,
कम ही सही पर सच्ची हैं।

जीतकर सारा जहां,
जब लौटकर तुम आओगे।
कहीं देर न हो जाये,
फिर हमसे नहीं  मिल पाओगे।
आ जाओ , आकर ,
लिपट जाओ गले से,
बाहों का गलहार दे दो।
हमको थोड़ा प्यार दे दो।

8-: वसीयत
-----------

पहली की,
दूसरी की,
तीसरी की,
पीढी दर पीढ़ी की वसीयत,
अन्तर की गहन संक्रामकता,
फैल सकती थी प्रसूति गृह मे भी,
इसीलिए -
जला दिया है मैंने,
उसके पीछे वाली अपनी झोपड़ी।
और तैयार कर ली है,
एक चिता,
पेड़ों की कीड़े खाई टहनियों से,
उनपर की पराऋयी लताओं से,
पुरखों की सड़ी गली किताबों के पन्नों से,
डपोरशॅखी व्यवस्थाओं से,
परम्पराओं, मान्यताओं से,
ताकि मेरी संक्रामकता,
नवागँतुक के आने से पहले ही,
भष्म होकर उसे अछूता छोड़ दे,
[15/10, 9:25 PM] gautamonkarsingh: छू मन्तर सपना
--------------------

कल रात  जब मै,
बिस्तर पर लेटा।
बिना ओर छोर का,
अजीब सपना देखा।

देखा एक बुढ़िया बेहाल,
फटे चीथडों में लिपटी है।
एक पोटली धरोहर सी,
उसके हाथों मे लटकी है।

मुझे देखते ही वह,
याचक की मुद्रा बनाती है।
तरस करने को कहती,
अपनी दुर्दशा दर्शाती है।

बोली एक दिन मैं भी,
बड़ी ऐश्वर्य वान थी।
मानित सम्मानित थी,
सुन्दर धनवान थी।

गौरवशाली इतिहास के,
किस्से वह सुनाती है।
पोटली से अतीत के,
सब साक्ष ला दिखाती है।

ऐश्वर्य के वैभव के,
सब चित्र दर्शाती है।
अपनों ने ही लूट लिया,
कैसे वह बताती है।

उसके दर्द सुनकर ,
मेरा मन पसीज गया।
छुब्ध दुखी मन  मेरा,
उसके अपनों पर खीज गया।

इसके पहले कि मैं ,
उसको कुछ थमा पाता।
उसके दुखी मन पर,
कुछ मरहम लगा पाता।

वहां छू मन्तर जादुई,
एक बिजली सी चमक गई।
और
ठठरी बुढ़िया अचानक ही,
भारत मां के नक्शे मे बदल गई।

9- स्वतंत्रता
------------

व्यर्थ व्यर्थ व्यर्थ,
मैं चिल्ला उठा।
झण्डे का फहराना,
मुझे व्यर्थ लगा।
अन्तरँग मे एक सँशयपूर्ण प्रश्न जगा।
जो कुछ समर्थ लगा।
और अपार जनता समूह के बीच ,
मै जोर जोर से कहने लगा।
भाइयो! देखो आकाश को,
जिसने देखा है समग्र इतिहास को।
उससे पूछो,और उन्हे श्रद्धांजलि दो,
जो अपने भूखे पेट को दबाये,
आशा की दृष्टि लगाये,
इसके नीचे से स्वर्ग सिधार गये हैं,
और उनकी माँगों को दुहराओ,
इन्कलाब के नारे लगाओ,
कि हमें स्वतन्त्रता चाहिए,
स्वतन्त्रता गरीबी और भय से,
भृष्ट व्यवस्था से,
जाति और धर्म की बेड़ियों से,
स्वछंद घूमते नर भेड़ियों से।
हमे चाहिए स्वतंत्रता ,
परिन्दों की मानिन्द।
तितली और भौरों की मानिन्द।
हवा , धूप और चांदनी की मानिन्द।
और यह स्वतंत्रता ,
भाषण और नारों से नही मिलेगी।
गिड़गिड़ाने और याचना से भी नही मिलेगी।
इसके लिए हमे अपनी रीढ़ को मजबूत करना होगा,
डंड पेलनी पड़ेगी।
और-
छीन लेने की जुर्रत जुटानी होगी।

10: प्रवाह
-------------

उमड़ता घुमड़ता बह रहा है,
एक काला सैलाब,
पवित्र भारत माता की धरती पर।
अनगिनत चीखों-  चीत्कारों को,
अपने मे करता आत्मसात।
एक अनवरत प्रक्रिया में बहता,
और काले धब्बे सफेदी ओढ़,
जुड़ते रहते हैं परम्परा के साथ।
महान बन जाते हैं , काली माटी के वे पुतले,
जिन पर मुहल्ले के कुत्ते कभी,
विसर्जन करना तक पसन्द नही करते थे।
बह जाती है अनगिनत , कराहती घुटती सांसे,
न्याय का बन्द दरवाजा खटखटाते।
बस तैरती रहती हैं काले कोलातार से लिपी-पुती कुछेक कश्तियाॅ,
जिन पर बैठे होते हैं कुछ नकाबपोश हत्यारे।
और-
बचे खुचे चेहरों पर,
पुत् जाती हैं उनकी परछाइयाँ।
हर जगह पहरा है,
सौ-सौ पैरों वाले खनखजूरों का,
सरकारी जोंकों का,
जो हर समय किसी स्वादिष्ट खून की तलाश मे हैं।
सब कुछ लद बद हो गया है,
फिर भी -
पानी की निर्मलता ओढ़े,
काला सैलाब बहता ही जा रहा है,
अनिरुद्ध, अनवरत, अलख, अनिश्वर।

11- चीरहरण अब भी जारी है
----------------------------------

द्यूत जीतकर जो भी आया,
उसने इसे पदस्थ किया।
चीर खींचकर उसने इसको,
साधिकार निर्वस्त्र किया।

बस एक खिलौना है यह,
जो जीते उस पर खेले।
अपनी सम्पत्ति समझकर,
जो चाहे उससे ले ले ।

चले गये कौरव सदियो से,
चीरहरण अब भी जारी है।
प्रजातंत्र बनकर भारत मे,
फिर से द्रौपदी अवतारी है।

12-: मछली मछली कित्ता पानी
-----------------------------------

कित्ता पानी कित्ता पानी।
मछली मछली कित्ता पानी।
नदी किनारे आकर बैठी,
पूछे मछुआरों की रानी।
मछली मछली कित्ता पानी।
झुंडों मे आ कहतीं मछली,
इत्ता पानी इत्ता पानी।
प्रतिवर्ष इस तरह आती जाती,
गाती मछुआरों की रानी।
झुंडों मे आ मछली कहतीं,
इत्ता पानी इत्ता पानी।
हाय हुआ क्या इस बारी,
कि आई मछुआरों की रानी।
पूछे बैठे नदी किनारे,
मछली  मछली कित्ता पानी।
कोई उत्तर नहीं मिला तो,
उसको हुई बड़ी हैरानी।
बार बार आवाज लगाये,
मछली मछली कित्ता पानी।
बेसब्री मे आखिर उसने ,
फिर से यह आवाज लगाई।
थोड़ी हलचल हुई लहर मे,
एक बूढ़ी मछली बाहर आई।
बची-खुची उर्जा अर्जित कर,
थोड़ा हिली और वह डोली।
टूट रहे स्वर में,साहस कर,
बूढ़ी मछली फिर यूँ बोली।
यहां नही कोई मछली अब,
किसे पुकार रही हो रानी।
कैसे तुम्हे बताऊं अब मैं,
बित्ता पानी बित्ता पानी।
उद्योगों से निकला कचरा,
कारों का जहरीला तेल।
गन्दे नालों से हो आता,
दुनिया का सारा मल मैल।
इन सबसे जल हुआ प्रदूषित,
कब तक पी सकते थे हम।
इधर प्रदूषण उधर मछेरे,
कब तक जी सकते थे हम।
सूख गए सब ताल तलैये,
जिनमे मैं क्रीड़ा करती थी।
अपने पिय के संग संग मैं,
जहां प्रसव पीड़ा करती थी।
मछुआरों ने ऐसे ऐसे,
लघु छिद्रों के जाल बिछाये।
चार दिनों के छौने मेरे,
उन जालों के गाल समाये।
छोटे छोटे दिल के टुकड़े,
पकड़ ले गये वे हत्यारे।
बैठी बैठो नदी किनारे,
अब रानी तू किसे पुकारे।
हरे हो गये घाव याद के,
मछली सिसक सिसक रोती है,
अपनो के खोने की पीड़ा,
कितनी दर्द भरी होती है।
जाओ जाओ अपने घर तुम,
अब मत मुझे पुकारो रानी।
मेरी सांसे भी बुझने को, मत पूछो  कि कित्ता पानी।
कित्ता पानी कित्ता पानी।

 13-: शिशिर की रात
--------------------

सिकुड़ रहा ठंडक से
बृद्ध एक भिछुक था,
चाहता था पैसे कुछ
जीवन चलाने को।
पर हाय नही सुनता था,
कोई भी राहगीर ,
दर्द भरी , व्यथा भरी,
उसकी पुकारों को।
मानव की कौन कहे,
उसका प्रतिपालक भी,
करता था ऊपर से वर्षा तुषार की।
और उसकी जननी,
यह वन्दनीया अवनी भी,
खींचती थी चुपके से,
ऊष्मा शरीर की।
इसीलिए जोर जोर गीत वह गाता था,
जानने को,
जिन्दा है या है मरा हुआ।