Monday, March 26, 2018

प्रवाह
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उमड़ता घुमड़ता बह रहा है,
एक काला सैलाब,
पवित्र भारत माता की धरती पर।
अनगिनत चीखों-  चीत्कारों को,
अपने मे करता आत्मसात।
एक अनवरत प्रक्रिया में बहता,
और काले धब्बे सफेदी ओढ़,
जुड़ते रहते हैं परम्परा के साथ।
महान बन जाते हैं , काली माटी के वे पुतले,
जिन पर मुहल्ले के कुत्ते कभी,
विसर्जन करना तक पसन्द नही करते थे।
बह जाती है अनगिनत , कराहती घुटती सांसे,
न्याय का बन्द दरवाजा खटखटाते।
बस तैरती रहती हैं काले कोलातार से लिपी-पुती कुछेक कश्तियाॅ,
जिन पर बैठे होते हैं कुछ नकाबपोश हत्यारे।
और-
बचे खुचे चेहरों पर,
पुत् जाती हैं उनकी परछाइयाँ।
हर जगह पहरा है,
सौ-सौ पैरों वाले खनखजूरों का,
सरकारी जोंकों का,
जो हर समय किसी स्वादिष्ट खून की तलाश मे हैं।
सब कुछ लद बद हो गया है,
फिर भी -
पानी की निर्मलता ओढ़े,
काला सैलाब बहता ही जा रहा है,
अनिरुद्ध, अनवरत, अलख, अनिश्वर।

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