Monday, March 26, 2018

शिनाख्त
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गली नुक्कड़ हर चौराहा,
खून से रंगा हुआ है।
आज मेरे शहर में,
साम्प्रदायिक दंगा हुआ है।

जगह-जगह लूट और,
मौत के मंजर हैं,
हर ऑख में खून और,
हाथो में खंजर हैं।

शहर का शहर अब,
वीरान हो गया है,
जो जिन्दा दिल धड़कता था,
शमशान हो गया है।

मैं खिड़की से बाहर के-
तान्डव को आंकता हूं.
खोखली ईन्सानियत के,
समीकरण नापता हूं।

चारों तरफ बिखरी पड़ी हैं,
लाशें ही लाशें।
ज्यो घनघोर सावन में,
हों बरस गई लाशें।

रात हो चली है और,
अंधेरा घिर आया है।
एक भयावह सुनसान ,
सन्नाटा छाया है।

सम्भव है कि इनमे से-
अजीज कोई अपना हो।
बाकी हो सांसें,
शेष जीने का सपना हो।

मैं बाहर निकलता हूँ,
इधर उधर खोजता हूं।
पास पड़ी लाश का,
चेहरा टटोलता हूूं।

स्पर्श से ऊंगलियों के,
जो चित्र उभर आता है।
वह हू बहू मेरे ही-
चेहरे से मेल खाता है।

मैं बदहवास अनगिनत -
लाशें टटोल आता हूॅ।
मगर हर लाश के चेहरे पर-
अपने आप को ही पाता हूॅ।

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